अरस्तु की आँखें और सिनेमा…
Monday, August 27, 2007
अरस्तु जो महान विद्वान था और साथ ही दार्शनिक
भी…शायद ही कोई विधा हो जिसमें इस महान
व्यक्तित्व ने अपनी दृष्टि न रखी हो… जिसमें सिनेमा
भी प्रमुख था उसपर लिखी गई पुस्तक थी Ars Poetica
भी प्रमुख था उसपर लिखी गई पुस्तक थी Ars Poetica
(सिनेमा पर टीका-टिप्पणी) जिसमें बड़े वैज्ञानिक तरीके
से यह देखने की कोशिश की गई कि ऐसी क्या
चीजे हैं जो इतने लोगों को थियेटर में खिंच लाती है,
चीजे हैं जो इतने लोगों को थियेटर में खिंच लाती है,
वैसे तो यह किताब बहुत उदासिन है पर सिनेमा की
संरचना को समझने के लिए इससे उत्तम पुस्तक
नहीं है जो सिनेमा का सच कहा जाए तो पूर्वज है…
इस पुस्तक में कई ऐसी बातें थी जो हम आज भी
नहीं है जो सिनेमा का सच कहा जाए तो पूर्वज है…
इस पुस्तक में कई ऐसी बातें थी जो हम आज भी
उपयोग में लाते हैं चाहे जाने हुए या अनजाने में…।
अरस्तु ने नाटक की संरचना को देखते हुए तीन प्रकारों
में विभक्त किया है--
1) Tragic Structure
2) Epic Structure
3) Comic Structure
और यही हमारे सिनेमा का आधार भी है… अंतर मात्र
1) Tragic Structure
2) Epic Structure
3) Comic Structure
और यही हमारे सिनेमा का आधार भी है… अंतर मात्र
यह है कि भारतीय सिनेमा Epic Structure(जिसमें
कहानी के भीतर कई कहानियों का संग्रह हो…साथ
इसकी संरचना ढीली हो) को मानता है या उसपर
आधारित है, मगर अमेरिकन सिनेमा Tragic Structure
(जिसमें एक कहानी और संरचना कसी हुई हो) का
अनुसरण करता है…।
भारतीय सिनेमा का आधार ही सच कहा जाए तो
भारतीय सिनेमा का आधार ही सच कहा जाए तो
काफी ढीला है जिसके कारण हम एक अच्छी फिल्म
नहीं बना पाते… चूंकि हमारे ज्यादातर फिल्म-मेकर
अनपढ़ हैं(सिनेमा के संदर्भ में) हैं जिसे पता ही नही
अनपढ़ हैं(सिनेमा के संदर्भ में) हैं जिसे पता ही नही
कि सिनेमा,(जिसे दुनियाँ का सबसे बड़ा कला का
स्वरुप माना जाता है) कहते किसे हैं बस मात्र चरित्र
को परदे पर दौड़ा देना पेड़ के साथ गाने गाना इसी
को सबकुछ मानकर पेश किया जाता है…। हमें
काफी कुछ जानना है कई सारी पद्धतियों को समझना
है मात्र कपड़े उतारना ही नहीं उससे ऊँची छलांग की
आवश्यकता है…।
August 27, 2007 at 11:06 PM
please keep writng we will get more info to understand
September 15, 2007 at 3:00 PM
आपने ब्लाक का ले-आउट बडा जबरदस्त है। बधाई स्वीकारें।
अरस्तु की पुस्तक की बात पढकर मुझे दो साल पहले "उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान" द्वारा प्रदत्तर फैलोशिप "हिन्दी का बदलता स्वरूप और पटकथा लेखन" की याद आ गयी। काश, आपने यह पोस्ट तब लिखी होती, तो मेरे बहुत काम आती।
खैर, इस पोस्ट को देखकर अच्छा लगा। आशा है आगे भी इसी प्रकार की जानकारी परक सामग्री परोसते रहेंगे।
October 11, 2007 at 4:34 PM
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