अनुराग कश्यप को देखनी चाहिए आमिर खान की "राख"  

Thursday, August 5, 2010



I know this fact that "Anurag Kashyap" is a very-2 good media arranger or promoter. His film was good or bad that is not my point of view. I have also not choosen Anurag's name for generating the readers on my blog but to tell my vision for good cinema. Basically i have no problem with Anurag’s making but to execution of his brain that always shown his egoistic film making rather than his ability to make good cinema.
So lets start with hindi.
"गुलाल" एक ऐसी ही फिल्म है, जिसे देखने की इच्छा तब से थी जब "अनुराग कश्यप" से पहली दफा मिला और गुलाल के संदर्भ में जाना कि ये फिल्म अनुराग ने उस समय लिखी जब वे अपने कष्टों को जमाने की हकीकत से पोछने की कोशिश कर रहे थे। He defined his film as the angriest film ever made in India. मगर जब मैंने फिल्म देखी तो ऐसा कुछ भी नया नहीं लगा जिसकी प्रशंसा में दो-चार शब्द लिखे जाएँ। खैर, आज हम बात करने निकले हैं "आमिर खान" और "आदित्य भट्टाचार्या" की Dark Cinema “राख” की जो मात्र विषयगत ही नहीं वरण निर्माण रुप में भी श्रेष्ट है। यह फिल्म मुंबई अंडरवर्ल्ड की उस खौफनाक अश्लीलता को दिखाने का प्रयास करती है,जहां सिर्फ एक नियम चलते हैं इंसान की हैवानियत, जो अपनी महत्वाकांक्षाओं की आग से समाज की विचित्र रुपरेखा तैयार करता है। साथ ही इसका मुख्य पात्र न्यायिक आदर्श और अन्याय संबद्ध हिंसा व भ्रष्टाचार के खेल के मध्य प्रयोग के साथ अपने अस्तित्व की खोज भी करता नजर आता है। आमिर खान इस फिल्म में ऐसी ही भूमिका निभा रहे हैं,जो मात्र अपनी हिंदू प्रेमिका के बलात्कार का बदला नहीं लेता है वरण उस नवयुवक को रेखांकित करता नजर आता है जो अपने अंदर की उबाल लेती व्यथा,समाज के प्रति विद्रोही भावना और वर्तमान में चल रहे बहुतों ऐसे कार्य जिससे वह अपने आप को जोर नहीं पाता व भीतरी राख की उस चिंगारी को फूंकता रहता है जहां समाज के सारे मापदंडों को किनारे कर एक दिन उसके खिलाफ खड़ा हो सके।
मेरे लिहाज़ से निर्देशक ने इस फिल्म को कोई हिंदू-मुस्लिम चश्में से देखने की कोशिश नहीं की है ना किसी शिक्षा का बखान किया है बल्कि युवाओं की उस अंतरदशा को दर्शाया है जहां वे मजहबी छीटों से कम, अराजक व दोमुहें नियमों में ज्यादा घुटन महसूस कर रहा है।
"आमिर खान" हिंसक गुस्सैल आवेगी युवा के रूप में बहुत ही प्रभावी व स्वाभाविक लगे हैं। यह उनकी उन कुछ चुनिन्दा बेहतरीन अभिनय में आता है जिसके लिए आमिर खान को "आमिर खान"माना जाता है जबकि आश्चर्य यह है कि यह उनकी दूसरी फिल्म ही है। इस फिल्म के हर दृश्य में गतिशीलता है, Source Light का इतना अच्छा इस्तेमाल शायद मैंने किसी भी हिंदी फिल्म में पहले नहीं देखा। कमाल की फोटोग्राफी दर्शक को सिनेमा के उस तह तक ले जाने की कोशिश करता है जहां शहर की जगमग बत्तियों के तले ही बड़ा अंधकार है, हम आसानी से यह समझ पाते हैं की इसमें minimal light का प्रयोग क्यों किया गया है।
"राख" युवा के मानसिक आघात को लेकर आगे बढ़ती है जबकि सुप्रिया पाठक जो एक मुस्लिम बलात्कार पीड़ित के रुप में इस फिल्म में काम कर रही हैं जिसे एक हिंदू लड़के के सामने ही अपनी गरिमा को खोना पड़ता है;मगर यहां भी निर्देशक इससे आगे जाकर उस तह को टटोलता है जहां मानवीय गरिमा इंसानी सहानुभूति से ज्यादा महत्व रखती है।
प्रतिभाशाली युवा निदेशक “आदित्य भट्टाचार्य” ने एक गंभीर विषय को सामाजिक टिप्पणी के लिए चुना है जहां निराशा अन्याय और इसे जीतने की एक उम्मीद छिपी है। सामाजिक चादर जिसके भीतर हिंसा अराजकता विनाश इसकदर दबी है जिससे सामान्य जीवन अनेकों रुप में प्रभावित होती रहती है मगर जो राख इंसान के भीतर मलबे की तरह जमा होता जाता है वहाँ चिंगारी का प्रतिबिंब भी नजरअंदाज हो जाता हैं। यही गहराई इसे प्रभावी सिनेमा के अग्रणी श्रेणियों में लाकर खड़ा करता है। कम संवादों ने भी इसे और गहराई दी है जिसे आज के Cinamatic Language में Symbolism कहा जाता है, उसे आदित्य में 1989में दिखलाया है।मानव अस्तित्व की हताशा और उससे लड़ने की बेचैनी,न्याय को मांग़ना या छीन लेना निष्कर्ष के रुप में दर्शकों के लिए निर्देशक ने खुला छोड़ दिया है।
"अनुराग" को ये फिल्म जरुर देखनी चाहिए, अगर देखा है तो एक थाल में "गुलाल" और "राख" दोनों को सजा कर गहराई से निष्कर्ष तक खुद को ले जायें जिससे पता चले कि ये फिल्म उनके गुलाल के रंगीन मतलब को राख की कालिख से कितना पोतती है ।

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