"Taare Zameen Par" -- बेहतरीन फिल्म
Friday, December 21, 2007
रुला दिया यार… सच में मुझे खुद से मिला दिया…। सिनेमा हाल से निकलते हुए मैं अपनी यादों अपने ज़ज्बातों, ढेर सारी उल्झनों और दामन भर आशाओं के अश्रुओं को पोछता सपनों को बुनता हल्के कदमों से बाहर निकला…।
प्रथम…प्रथम…प्रथम!!! घुड़-दौड़…घुड़-दौड़… बस यही है मंत्र यहाँ का कोई ये अपने बच्चों को नहीं सिखलाता, अच्छाइयाँ किसे कहते हैं, प्यार से उनके सर को सहलाता नहीं, उनकी बहुत सी अलग विशेषताओं को कदमों का सहारा नहीं मिलता, ये नजरअंदाज कर दिये जाते हैं; बस यही सीख मिलती है, तुम्हें अपने साथी को हराना कैसे है…। अपने भीतर की कुंठा का बीजारोपण अपने बच्चों
पर करते जाते हैं… फिर इसे प्रतिष्ठा से जोड़ लेते हैं, सोंचते हम अपने अनुसार हैं पर खुद के सपनों को नन्हें-मुन्ने खूबसूरत कोमल स्पर्शों पर थोप देते हैं… और जब हमारे खुद के सपने पूरे होते नहीं दिखते हैं तो दोष भी उन नन्हें चेहरों पर मढ़ देते हैं…। यही संदेश हमारे सामने "आमिर खान" लेकर आये हैं अपनी एक बेहद संजीदा व बेहतरीन फिल्म "तारे जमीन पर" के साथ।
अगर फिल्म के इस बेहत जटिल किंतु महत्वपूर्ण संदेश को थोड़ी देर के लिए छोड़ दिया जाये तो देखते हैं कि एक नवोदित निर्देशक जो इस फिल्म के निर्माता भी हैं, कितनी समझ रखता है विषयों का उसे प्रस्तुत करने का… शानदार अभिनय के साथ-2 बेहतरीन संकेतों के द्वारा फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाया गया है…एक निर्देशक को जबतक कहानी का मनोविज्ञान नहीं पता होगा वह ऐसी फिल्म बना ही नहीं सकता… उसे पता है कि बच्चों का मस्तिष्क सोंचता कैसे है, व्यवहार कैसे करता है प्रत्येक व्यवहार का एक अलग अर्थ होता है जिसे सिनेमा के परदे पर उतारना शायद बहुत कठीन है…अपनी पहली फिल्म बनाने में यह मुझे दिख रहा है। जो साहित्य में लिखा होता है उसे चरित्र में ढालना ही सिनेमा का सबसे बड़ा आविष्कार है… इसमें "आमिर खान" जो वैसे ही भारत के कुछ एक-आध महान कलाकारों में गिने जाते हैं एक महान निर्देशक भी साबित हुए हैं… फिल्म के प्रत्येक पहलुओं को महसूस किया है… किस लिए "अमीर" साहब को Perfectionist कहा जाता है ये सिनेमा के तत्वों को छू कर ही समझ आता है… दर्शील सफारी का अभिनय एक ऐसे बच्चे के रुप में है जो अपनी उमंगों से होता हुआ अंधकार की ओर चला जाता है… बेहतरीन से भी ज्यादा सुंदर शब्द हो तो वह भी चलेगा… निर्देशक ने
कथा के अनुसार उसके भीतर की समस्त कलाओं को बाहर निकाल लिया है… आपको पहली ही नजर में उस बच्चे से प्यार हो जाएगा…।
फिल्म एक ऐसे बच्चे की दास्तान है जो पढ़ाई-लिखाई में काफी कमजोर है, उसे कुछ भी समझ नहीं आता की करना क्या है… क्लास में हमेशा फेल होना किसी भी चीज को ठीक से याद नहीं करना मात्र खुद में डुबे रहना… जिसका बड़ा भाई अपनी क्लास का टॉपर है, उसके साथ उसकी तुलना किये जाना आदि-2, वह बालक लगातार इन परिस्थितियों से जुझता रहता है… उसके अंदर का आत्मबल समाप्त हो जाता है, जबकि ऐसा नहीं है कि वह चाहता नहीं कुछ करना पर कोई उसे ठीक से समझने वाला नहीं है… सभी उसे सिर्फ कोसते रहते है परिणाम वह गहरी मायूसी ओढ़ लेता है… औरों से दूर हटता जाता है… बिल्कुल खामोश हो जाता है। एक दिन उसे अपने परिवार से अलग हो जाना पड़ता है और एक आवासीय विद्यालय में उसका दाखिला करा दिया जाता है जहाँ वह बालक और भी विलग हो जाता है… फिर एक सबेरा क्लास में नया कला का शिक्षक लेकर आता है जो उसे जानने की कोशिश करता है… उसके अंदर की अच्छाइयों को परखता है बाहर आने का खुला मौका देता है…।
बाल मनोविज्ञान पर काफी दिनों बाद गंभीर फिल्म बनी है… कहानी का मात्र वह बालक ही HERO है, "आमिर खान" एक सहायक कलाकार के रुप में हैं जो निश्चित ही बड़ा साहसिक कदम है… जो संपूर्णता में सिनेमा को देखना जानता है… शाहरुख खान साहब और ऐसे कई कलाकारों को उनसे सिखना चाहिए, मात्र पैसा कमाना ही एक अहम ध्येय नहीं है कुछ ऐसा भी करो जिसे लोग बाद में भी याद करें… आज से 20-30 साल बाद शाहरुख भाई की कितनी फिल्मों को लोग याद रखेंगे दो हफ्ते में ही ओम-शांति-ओम भुला दी गई… चक-दे, जो देखा जाये तो विश्व की कुछ 4-5 खेल फिल्मों की नकल है को उनके फैन ने आसमान पर बिठा दिया चूंकि कहने के लिए DDLJ के अलावा कोई भी फिल्म स्तर की नहीं
है… हाँ मन को कुछ देर तसल्ली जरुर देती है पर कुछ देर की तसल्ली ही जीवन का आधार तो तैयार नहीं करती…।
इस फिल्म का संगीत पहले मुझे बहुत अच्छा नहीं लगा था किंतु जब फिल्म मैंने देखी तो कहानी के साथ-2 प्रसून जोशी के शब्द भी मुखर होते गये… पिछे का संगीत एक अजब छाप छोड़ता नजर आता है, पूरी फिल्म टूटते शीरे को जोड़ते हुए आगे बढ़ती है…मुझे कहीं नहीं लगा कि निर्देशक कहानी से भटक गया है… बहुत ही अच्छा कैमरा का इस्तेमाल “सेतू” ने किया है… सारे CUT इतने साफ हैं कि आंखों को कहीं नहीं चुभते, फिल्म मेंरंगों का चुनाव जो मात्र कपड़ों तलक नहीं है कहानी से बिलकुल
मेल खाता है, लाईट का प्रयोग भी बेहतर है पर कहीं-2 थोड़ा DULL दिखता है… फिल्म आपकों एक बच्चें के भीतर उसके अंधकार में ले जाती है जैसे-2 हम आगे जाते हैं जटिलताएँ और भी गहरी होती जाती हैं… मैं तो खुद को ही देख रहा था कि कौन सी गलतियाँ मेरे माँ-पापा ने मेरे साथ की… मैं तो इतना ही जानता हूँ कि बच्चों को पौधों की तरह रखो, जैसे हम एक पौधे को संभालते हैं धूप से, ज्यादा ठंड से, तेज झोकों से, ज्यादा खाद ज्यादा पानी भी एक पौघे को नुकसान पहुंचा सकता है वह मुरझा सकता है वैसे ही हमारे ये जमीन के सितारे हैं, भविष्य हैं और कोई भविष्य को भी घुड़-दौड़ में शामिल करता है, नहीं!!! भविष्य को हल्के सहारों से बनाया जाता है आत्मबल पैदा करके… हम सबकुछ समझते है पर खुद के बच्चों को उसके अनुसार नहीं ढालते हैं उन्हें उन्हें सपनों को रचने का कोई मौका ही नहीं देते बस खुद को उनके द्वारा श्रेष्ठ साबित करना चाह्ते हैं…।
मैं मान गया "आमिर खान" को, जो हिम्मत दिखा सकता है कुछ नया करने लिए…। इस फिल्म में एक सीन है जब बच्चा अपने परिवार से दूर चला जाता है तो खुद की एक "स्क्रिप्ट स्केज बुक" तैयार करता है, जिसे जब उसकी माँ पलटती है तो सच कहूं जनाब दर्शक की आँखें नम हो जाती हैं…। मेरे लिहाज से ये इस साल की सबसे बेहतरीन फिल्म हैं और मेरा सरकार से ये आग्रह है कि जितनी जल्द हो इसे टैक्स-फ्री किया जाए…।
बच्चे तो बाद में इसे देखने जायें पर अभिभावक जरुर पहुंचे एवं देखें
की कौन-सी राह हमने चुनीं है अपने भविष्य को बनाने के लिए…।
December 21, 2007 at 8:18 PM
Divyaabh ji,hamaarey ek pakistaani mitr hain,jo kahatey hain ki bachey tumari satah par nahi jaayengey,tumey unki zameen par utarna hogaa.Avall aaney ki daud bachon ki nahi parents ki hoti hai.....movie zaruur dekhuungi...review bahut achacha hai...shukriya
December 21, 2007 at 10:49 PM
बहुत ही बेहतरीन समीक्षा की है आपने।
December 21, 2007 at 11:46 PM
नाम आमिर खान लिखें.बहुत संदर लिखा है आप ने.अच्छी फिल्म अच्छा लिखवा लेती है.
December 22, 2007 at 12:23 AM
बेहतरीन लेखन!!
फिल्म देखने का मन बना ही रहा था लेकिन आपका लिखा पढ़ने के बाद तो मजबूर हो गया कि देखना ही है।
वाकई बहुत बढ़िया लिखा है आपने।
December 22, 2007 at 8:54 AM
हम आज ही ये फिल्म देख रहे हैं भाई । पिछले दिनों एक मित्र से बहस हो गयी थी । वो आमिर खान को सनकी और जाने क्या क्या कह रहे थे उनका कहना था कि बच्चों को ध्यान में रखकर बनाई गयी फिल्म् क्या खाक चलेगी । हम सुलग गये थे इस सब पर । समीक्षाओं और रायों ने साबित कर दिया है कि हम सही थे दोस्त । आखिर कब लोग चलताऊ सिनेमा के खांचों से बाहर निकलेंगे ।
January 15, 2008 at 6:22 AM
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February 1, 2008 at 7:18 PM
मेरा बस चले तो इस फिल्म को ऑस्कर दे दूँ. पूरी पिक्ट मे अपने ४ साल के बेटे को गोदी मे बैठाये चुप चाप सुबक सुबक कर रोता रहा ओर दर भी था की आस पास वाले क्या सोचेंगे.ओर माँ वाले गाने मे तो एकदम बिलख पड़ा. अंत मे बाहर निकला तो आँखे लाल थी.लेकिन सच मानिये हर शख्स जों इस फिल्म से जुड़ा है .उसको सलाम.
March 23, 2008 at 8:50 AM
कल बधाई दे नही पाई सभी लोगो को घर मेहमानो से भर गया था...:)
होली की शुभकामनायें...
April 5, 2008 at 3:39 AM
आज कुछ सर्च करते करते आपके ब्लॉग तक पहुंच गया। यूं तो अपन ने भी फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखकर समीक्षा लिखी, पर आपके शब्दों के आगे अपन तो इंडियन टीम की तरह ढेर हो गए। पर कसम से आपने बहुत ही जबरदस्त लिखा।
बधाई
अगर चाहें तो इस पर नजर मार सकते हैं
http://shuruwat.blogspot.com/2007/12/blog-post_21.html
November 17, 2008 at 11:14 AM
bouth he aache kosis keep it up ji
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June 9, 2009 at 3:22 PM
कृपया इसे भी अपडेट करते रहें।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
December 8, 2010 at 5:41 PM
They are the best movie of the bollywood. very nice movie & songs.